धीरे धीरे गम में तेरे हम भी पागल हो गए
ऐसा पलटा आशियाना दिल भी धायल हो गया
क्या कभी फल फूल भी आये ऐ पागल कृषक कि,
जब जब उठी सोधी महक तुम एक मुट्ठी बो गए
पूछता हू उन मद भरी अमराइयो से कि जब,
पड़ा पत झड से पाला वो क्यू बेकल हो गए
उन आवारा बादलो को दूंगा उम्र भर दुआ जो,
बगैर बरसे ही दिल का तार तार भिगो गए
क्यू न देखे चाँद को घूरकर हम ऐ मिया,
कल किसी गड्डे में गिर कर मुह का कालिख धो गए